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Jamaat e Islami Hind reached Supreme Court regarding Waqf law raised Many questions in petition ANN


Plea Against Waqf Law: जमात-ए-इस्लामी हिंद ने भारत के सर्वोच्च न्यायालय (सुप्रीम कोर्ट) के समक्ष एक याचिका दायर की है, जिसमें वक्फ (संशोधन) अधिनियम, 2025 की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी गई है. जमात के उपाध्यक्ष प्रोफेसर सलीम इंजीनियर, मौलाना शफी मदनी और इनाम उर रहमान के साथ-साथ जमात के अन्य वरिष्ठ पदाधिकारियों की ओर से दायर याचिका (मोहम्मद सलीम एवं अन्य (याचिकाकर्ता) बनाम भारत संघ (प्रतिवादी) में नए कानून पर गंभीर चिंता जताई गई है.

याचिका में कहा गया है कि ये संशोधन मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करते हैं और देश में वक्फों के धार्मिक, चैरिटेबल और समुदाय-उन्मुख चरित्र को खंडित करते हैं. याचिका में भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14, 15, 16, 25, 26 और 300 (ए) का उल्लंघन बताते हुए इन संशोधनों को असंवैधानिक करार देकर रद्द करने की मांग की गई है.

याचिका में उठाए गए प्रमुख प्रसंग:

1. मौलिक अधिकारों का उल्लंघन

संशोधित अधिनियम वक्फ की परिभाषा और संरचना में परिवर्तन लाता है तथा इस बात पर अनुचित प्रतिबंध लगाता है कि कौन वक्फ सृजित कर सकता है और उसका प्रबंधन कैसे किया जा सकता है. उदाहरण के लिए अब, कानून के अनुसार दानकर्ता को यह साबित करना होगा कि उन्होंने कम से कम पांच वर्षों तक इस्लाम का पालन किया है – यह एक अस्पष्ट और मनमाना अपेक्षा है, जो इस्लामी कानून पर आधारित नहीं है एवं महिलाओं, धर्मांतरित लोगों और कई वास्तविक दानकर्ताओं को उनकी धार्मिक स्वतंत्रता का प्रयोग करने से वंचित कर सकता है. यह सीधे तौर पर अनुच्छेद 25 और 15 का उल्लंघन है, जो धार्मिक स्वतंत्रता और भेदभाव के विरुद्ध सुरक्षा की गारंटी देते हैं.

2. वक्फ बोर्ड की स्वायत्तता का कटाव

नया कानून निर्वाचित वक्फ बोर्डों को भंग कर उनके स्थान पर सरकार की ओर से नियुक्त पदाधिकारियों को नियुक्त करता है, जिनमें गैर-मुस्लिम और इस्लामी न्यायशास्त्र का अपेक्षित ज्ञान न रखने वाले अधिकारी भी शामिल हैं. यह मूलतः अनुच्छेद 26 के प्रदत्त समुदाय के अपने धार्मिक संस्थानों के प्रबंधन के अधिकार का उल्लंघन करता है. इसके अलावा, संशोधन में बोर्ड के मुस्लिम सीईओ होने की आवश्यकता को हटा दिया गया है, जिससे सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व कमजोर हो जाएगा.

3. वक्फ संपत्तियों का अनुचित अधिग्रहण

अधिनियम की धारा 3डी को जल्दबाजी और मनमाने ढंग से एएसआई संरक्षित स्मारकों के तहत सभी वक्फ संपत्तियों को शून्य घोषित करने के लिए पेश किया गया है, चाहे उनका ऐतिहासिक धार्मिक महत्व कुछ भी हो. यह प्रावधान मूलतः वक्फ संपत्तियों से सम्बंधित प्राचीन स्मारक एवं पुरातत्व स्थल तथा अवशेष अधिनियम, 1958 की धारा 6 को निरस्त करता है, साथ ही एक भेदभावपूर्ण ढांचा तैयार करता है जिसके द्वारा केवल मुस्लिम धार्मिक स्मारकों से उनके धार्मिक स्वरुप और प्रबंधन को छीना गया है. इसके अलावा, यह कानून अतिक्रमणकारियों को सीमा अधिनियम, 1963 के तहत पूर्वव्यापी प्रभाव से आवेदन करके वक्फ भूमि पर प्रतिकूल कब्जे का दावा करने में सक्षम बनाता है, जिससे मुस्लिम धर्मार्थ संपत्ति को और अधिक नुकसान पहुंचने का खतरा है.

4. सामुदायिक परामर्श की विफलता

संशोधनों की व्यापक और गहन प्रभावकारी प्रकृति के बावजूद, इन्हें जल्दबाजी में पारित किया गया, तथा प्रक्रियात्मक नियमों को स्थगित करके संसदीय कार्यवाही के दौरान धारा 3डी और 3ई जैसे परिवर्तन अंतिम समय में जोड़े गए. महत्वपूर्ण बात यह है कि समुदाय के अन्य लोगों के अतिरिक्त जमाअत के पदाधिकारियों ने संयुक्त संसदीय समिति के समक्ष जो गंभीर आपत्तियां उठाई थीं, अंतिम अधिनियम में नजरअंदाज कर दिया गया. यह घोर उपेक्षा लोकतांत्रिक सिद्धांतों और सहभागी शासन की भावना का उल्लंघन है.

अतिरिक्त कानूनी तर्क:

यह अधिनियम उपयोगकर्ता द्वारा वक्फ की अवधारणा को अमान्य करता है – जो कि न्यायिक रूप से स्वीकृत सिद्धांत है, जिसकी पुष्टि राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद निर्णय में भी की गई है – जिससे लिखित विलेख या दस्तावेजों के बिना ऐतिहासिक वक्फ समाप्त हो जाते हैं. यह सरकारी राजस्व अभिलेखों (अधिकारों के अभिलेख) को स्वामित्व के निर्णायक सबूत के रूप में मानता है, जबकि न्यायिक मिसाल यह मानती है कि ऐसी प्रविष्टियां स्वामित्व का निर्धारण नहीं करती हैं, विशेष रूप से वक्फ संपत्तियों के मामले में.

लाल शाह बाबा दरगाह, शेख यूसुफ चावला और रामजस फाउंडेशन के निर्णयों का हवाला देते हुए तर्क दिया गया है कि धर्मदान का मूल्यांकन सामुदायिक उपयोग और ऐतिहासिक निरंतरता के संदर्भ में किया जाना चाहिए, न कि केवल सरकारी अभिलेखों के आधार पर.

जमात-ए-इस्लामी हिंद इस बात पर जोर देता है कि वक्फ इस्लामी आस्था और भारतीय विरासत का एक अभिन्न अंग है जो दान, शिक्षा और सामाजिक कल्याण से गहराई से जुड़ा हुआ है. इसके धार्मिक और सामुदायिक चरित्र को कमजोर करने का कोई भी प्रयास न केवल असंवैधानिक है, बल्कि नैतिक रूप से भी अन्यायपूर्ण है. जमात नागरिक समाज, कानूनी विशेषज्ञों और बहुलवाद और न्याय के लिए प्रतिबद्ध नागरिकों से आह्वान करता है कि वे वक्फ सुरक्षा को मनमाने ढंग से खत्म किए जाने के खिलाफ आवाज उठाएं और इस संवैधानिक चुनौती के साथ एकजुटता से खड़े हों. 

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