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Explainer : अफगानिस्तान ने आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में किया भारत का समर्थन, पाकिस्तान-चीन को ऐसे दिया झटका


भारत-पाकिस्तान के समकालीन इतिहास में 7 से लेकर 10 मई 2025 यानी ये चार दिन हमेशा याद किए जाएंगे. आतंकियों को पनाह देने वाले पाकिस्तान पर भारत की बड़ी सैनिक, रणनीतिक और मनोवैज्ञानिक जीत के तौर पर. सिर्फ 25 मिनट के अंदर पाकिस्तान का कोई कोना ऐसा नहीं रहा जो भारत की मार से बचा रह गया हो. पाकिस्तान को एक गुमचोट तो ऐसी लगी है कि न उससे बताए बन रहा है और न पचाए. लिहाज़ा पाकिस्तान के सामने प्रोपेगैंडा वॉर के अलावा कोई चारा नहीं रहा. यहां तक कि भारत के सटीक हमलों से बिफरे पाकिस्तान ने एक बार ये तक फैलाने की कोशिश की कि भारत ने एक मिसाइल अफगानिस्तान में भी दागी है.

झूठ के पैर नहीं होते और सच हमेशा सतह पर आता ही है. कमजोर और कपटी का सबसे बड़ा हथियार झूठ ही होता है. पाकिस्तान के इस कपट की पोल तुरंत ही खुल गई, जब ख़ुद अफ़ग़ानिस्तान के रक्षा मंत्रालय के प्रवक्ता इनायतुल्लाह ख़वारिज़्मी ने साफ़ कर दिया कि पाकिस्तान के दावे में कोई सच्चाई नहीं है. भारत ने अफ़ग़ानिस्तान पर कोई मिसाइल नहीं दागी. इस झूठ को बुनने के पीछे पाकिस्तान की मंशा क्या रही होगी. क्या पाकिस्तान अपने पड़ोसी अफ़ग़ानिस्तान को भी किसी तरह इस युद्ध में खींच लाना चाहता था. क्या उसने हमेशा की तरह अफ़ग़ानिस्तान में सत्तारूढ़ सरकार को भारत के ख़िलाफ़ करने की नाकाम कोशिश की थी. अगर ऐसा है तो क्यों. क्या अफ़ग़ानिस्तान को पाकिस्तान फिर एक ग्रेट गेम में खींच लेना चाहता है जिसने अफ़ग़ानिस्तान के इतिहास, उसकी राजनीति और समाज, सब पर इतनी गहरी खरोंच डाली हैं कि वो आज तक उनसे उबर नहीं पाया.

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दुनिया की बड़ी ताक़तों की निगाह आज भी अफ़ग़ानिस्तान पर
15 अगस्त, 2021 से अफगानिस्तान में सत्तारूढ़ तालिबान सरकार युद्ध से क्षत विक्षत रहे अपने देश को संभालने में जुटी है. तालिबान की नीतियां काफ़ी कट्टर हैं. लेकिन एक देश के शासक के तौर पर अपनी ज़िम्मेदारियां तालिबान को भी समझ में आ रही हैं. उसे ये समझ में आने लगा है कि कौन अफ़गानिस्तान का असली दोस्त है और कौन दुश्मन रहा है. कौन उसे अपने फ़ायदे के लिए इस्तेमाल करता रहा है. दुनिया की बड़ी ताक़तों की निगाह आज भी अफ़ग़ानिस्तान पर लगी है. लेकिन तालिबान समझ रहा है कि उसे किस तरह इन ताक़तों के पंजों से बचते हुए अफ़ग़ानिस्तान को तरक्की के रास्ते पर ले जाना है. 20 साल की उथल पुथल के बाद चार साल पहले 2021 में दूसरी बार अफ़ग़ानिस्तान की सत्ता में आया तालिबान चाहता है कि दुनिया के देश उसकी सरकार को मान्यता दे. लेकिन उसकी कट्टर इस्लामिक नीतियां, महिला अधिकारों को लेकर उसका रुख़ अब भी दुनिया को पुख़्ता तौर पर ये यकीन नहीं दिला पा रहा है कि उसे मान्यता देनी चाहिए या नहीं. लेकिन तालिबान अफ़ग़ानिस्तान की तरक्की को लेकर गंभीर है और कोई ऐसी ग़लती नहीं करना चाहता जो अफ़ग़ानिस्तान को फिर अस्थिरता में धकेल दे. भारत इस मामले में हमेशा से अफगानिस्तान का भरोसेमंद दोस्त रहा है और पाकिस्तान को ये हमेशा अखरता रहा है. उधर अफ़ग़ानिस्तान की पुरानी सरकारों की तरह तालिबान भी भारत से दोस्ती के महत्व को समझ रहा है.

भारत और अफ़ग़ानिस्तान के बीच अविश्वास पैदा करने की कोशिश
भारत-पाक तनाव के बीच गुरुवार को विदेश मंत्री एस जयशंकर ने तालिबान के कार्यवाहक विदेश मंत्री अमीर ख़ान मुत्तक़ी से फोन पर बात की. भारत ने अफग़ानिस्तान में सत्तारूढ़ तालिबान सरकार के उस रुख़ का स्वागत किया जिसमें भारत और अफ़ग़ानिस्तान के बीच अविश्वास पैदा करने की कोशिशों को तालिबान ने खारिज कर दिया है. विदेश मंत्री एस जयशंकर ने सोशल मीडिया एक्स पर लिखा कि इस शाम अफ़ग़ानिस्तान के कार्यवाहक विदेश मंत्री मौलवी आमिर ख़ान मुत्तक़ी के साथ अच्छी बातचीत हुई. पहलगाम आतंकी हमले की उनके द्वारा निंदा पर बहुत आभार. झूठी और आधारहीन रिपोर्ट्स के आधार पर भारत और अफ़ग़ानिस्तान के बीच अविश्वास पैदा करने की हाल की कोशिशों को उनके द्वारा सख़्ती से खारिज किये जाने का स्वागत. अफ़ग़ान लोगों के साथ पारंपरिक दोस्ती और विकास की ज़रूरतों पर सहयोग जारी रखने पर ज़ोर दिया और इस सहयोग को आगे बढ़ाने के रास्तों और माध्यमों पर बात की.

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तालिबान के 2021 में सत्तारूढ़ होने के बाद भारत की उसके साथ ये अब तक की सबसे उच्चस्तरीय बातचीत रही. विदेश मंत्री स्तर की इस बातचीत से पहले इसी साल जनवरी में विदेश सचिव विक्रम मिसरी की दुबई में तालिबान के विदेश मंत्री से मुलाक़ात हुई थी जिसमें बनी समझ इस बैठक की बुनियाद रही… भारत ने अभी तक तालिबान सरकार को भले ही मान्यता न दी हो, उसके साथ राजनयिक संबंध पूरी तरह बहाल न किए हों लेकिन अफ़ग़ानिस्तान से अपनी पुरानी दोस्ती निभाते हुए उसकी जनता की ख़ातिर बुनियादी सुविधाओं के विकास में लगातार मदद देता रहा है… और तालिबान भी भारत के इस रवैये और पारंपरिक दोस्ती को समझता है.

भारत में आतंकवादी हमले की निंदा और कूटनीतिक संदेश
विदेश मंत्री एस. जयशंकर से मुलाक़ात के बाद तालिबान के विदेश मंत्रालय की ओर से जारी बयान में कहा गया कि जयशंकर और अफ़ग़ान विदेश मंत्री अमीर ख़ान मुत्तकी ने द्विपक्षीय संबंधों, व्यापारिक सहयोग और कूटनीतिक संवाद को बेहतर बनाने पर चर्चा की. मुत्तकी ने भारत को एक अहम क्षेत्रीय शक्ति बताते हुए दोनों देशों के ऐतिहासिक संबंधों को और मजबूत करने की उम्मीद जताई. उन्होंने दोहराया कि अफ़ग़ानिस्तान सभी देशों के साथ संतुलित और रचनात्मक विदेश नीति अपनाने के लिए प्रतिबद्ध है. मुत्तकी ने भारतीय वीज़ा प्रक्रिया को सरल करने और भारतीय जेलों में बंद अफ़ग़ान नागरिकों की रिहाई की मांग भी उठाई. तालिबान के अनुसार, जयशंकर ने दोनों देशों के ऐतिहासिक संबंधों की सराहना की और राजनीतिक व आर्थिक सहयोग को बढ़ावा देने की प्रतिबद्धता जताई. उन्होंने अफ़ग़ान क़ैदियों और वीज़ा से जुड़े मुद्दों पर सकारात्मक कार्रवाई का आश्वासन दिया.

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चाबहार बंदरगाह और अफ़ग़ानिस्तान-भारत सहयोग
तालिबान की ओर से जारी बयान में कहा गया कि दोनों पक्षों ने ईरान स्थित रणनीतिक रूप से अहम चाबहार बंदरगाह के विकास पर जोर दिया. इस बंदरगाह के एक टर्मिनल का संचालन भारत की एक कंपनी करती है, और यह अफ़ग़ानिस्तान तक मानवीय मदद व आवश्यक सामान पहुंचाने का एक महत्वपूर्ण माध्यम रहा है. तालिबान ने भारत से चाबहार के ज़रिए सामान भेजे जाने में रुचि दिखाई है. भारत-पाकिस्तान के बीच बढ़ते तनाव के कारण ज़मीन के रास्ते अफ़ग़ानिस्तान को आपूर्ति कठिन हो गई है, जिससे चाबहार बंदरगाह की भूमिका और अधिक महत्वपूर्ण हो गई है. वहीं, पहलगाम हमले के बाद भी अफ़ग़ानिस्तान का रुख भारत के प्रति सहयोगपूर्ण और संतुलित रहा है.

अफ़ग़ानिस्तान के विदेश मंत्रालय ने जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में हाल में हुए आतंकवादी हमले की स्पष्ट रूप से निंदा करते हुए पीड़ित परिवारों के प्रति संवेदना व्यक्त की. यह संकेत है कि अफ़ग़ानिस्तान, भारत के सामने मौजूद आतंकवाद की चुनौती को भलीभांति समझता है. इसके बावजूद, पाकिस्तान और उसका रणनीतिक साझेदार चीन, तालिबान को अपने प्रभाव में लेने के प्रयास में लगातार जुटे हैं. भारत इस पूरे घटनाक्रम पर करीबी नज़र रखे हुए है.

त्रिपक्षीय वार्ता और चीन-पाकिस्तान की भूमिका
ऑभारत और पाकिस्तान के बीच जब संघर्ष चरम पर था, उसी दिन अफ़ग़ानिस्तान की राजधानी काबुल में अफ़ग़ानिस्तान, पाकिस्तान और चीन के बीच त्रिपक्षीय वार्ता का ताज़ा दौर आयोजित हुआ. यह पहल 2017 में शुरू हुई थी, जिसका उद्देश्य आपसी राजनीतिक विश्वास को बढ़ाना, आतंकवाद के खिलाफ समन्वय स्थापित करना और आर्थिक साझेदारी को मजबूत करना है. चीन और पाकिस्तान उन गिने-चुने देशों में शामिल हैं जो तालिबान सरकार के साथ संबंध मजबूत करने की कोशिश में लगे हैं, हालांकि दोनों ने अब तक तालिबान को औपचारिक मान्यता नहीं दी है. चीन की मंशा है कि वह अपने बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) के तहत ‘चाइना-पाकिस्तान इकोनॉमिक कॉरिडोर’ (CPEC) को अफ़ग़ानिस्तान तक विस्तार दे और वहां निवेश बढ़ाए. लेकिन इस राह में कई चुनौतियाँ हैं. तालिबान भी इस निवेश के महत्व को समझता है, लेकिन उसे यह भी अंदाज़ा है कि चीन इसकी बड़ी क़ीमत वसूलना चाहेगा.

डूरंड लाइन विवाद और TTP का मुद्दा
तालिबान सरकार पाकिस्तान के साथ सीमा के रूप में ब्रिटिश काल में खींची गई डूरंड लाइन को मान्यता देने से इनकार करती है. इस कारण, पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान के बीच पुराना सीमा विवाद भी बना हुआ है. अफ़ग़ानिस्तान का मानना है कि डूरंड लाइन उसकी क्षेत्रीय अखंडता के खिलाफ है, खासकर पश्तून बहुल सीमावर्ती इलाकों में. यही वजह है कि पाकिस्तान के ख़ैबर पख़्तूनख़्वा क्षेत्र में लगातार असंतोष बना हुआ है. यहां के पश्तून संगठन समय-समय पर पाकिस्तान सरकार और सेना के खिलाफ अभियान चलाते रहते हैं. इसके साथ ही, तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (TTP) भी पाकिस्तान की सेना और उसके ठिकानों पर हमले करता रहता है, जो पाकिस्तान के लिए एक गंभीर चुनौती बन चुका है. पाकिस्तान का आरोप है कि TTP को तालिबान सरकार का समर्थन हासिल है, और यही दोनों देशों के बीच तनाव की सबसे बड़ी वजहों में से एक है.

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हवाई हमले और सीमा पर बढ़ता तनाव

इन्हीं तनावों के बीच, पिछले दो वर्षों में तीसरी बार, दिसंबर 2024 में पाकिस्तान ने अफ़ग़ानिस्तान की ज़मीन पर टीटीपी (तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान) के ठिकानों को निशाना बनाते हुए कई हवाई हमले किए. ये हमले अफ़ग़ानिस्तान के खोस्त और पक्तिका प्रांतों में हुए, जिनमें कई लोगों की मौत हुई. तालिबान सरकार ने इन हमलों को बेहद गंभीरता से लिया और इसके बाद डूरंड लाइन पर दोनों देशों की सेनाओं के बीच गोलीबारी हुई. टीटीपी ने भी जवाबी कार्रवाई करते हुए पाकिस्तान के भीतर हमले तेज़ कर दिए और पाकिस्तान एटॉमिक एनर्जी कमीशन के कई कर्मचारियों का अपहरण कर लिया. यह तनाव अब तक बना हुआ है.

अफ़ग़ान शरणार्थी और पाकिस्तान के साथ तनाव
अफ़ग़ानिस्तान दशकों से गृहयुद्ध और कबीलाई संघर्षों से जूझता रहा है, जिसकी वजह से वहां की एक बड़ी आबादी ने पाकिस्तान में शरण ली है. वर्तमान में करीब 35 लाख अफ़ग़ान शरणार्थी पाकिस्तान में रह रहे हैं, जो बेहद खराब मानवीय हालात का सामना कर रहे हैं. पाकिस्तान, इनमें से कई शरणार्थियों को जबरन वापस भेज रहा है, लेकिन उनके लिए कोई ठोस मानवीय राहत की व्यवस्था नहीं की गई है. इस स्थिति ने दोनों देशों के बीच तनाव को और बढ़ा दिया है और आज उनके आपसी रिश्ते ऐतिहासिक रूप से अपने सबसे निचले स्तर पर पहुंच गए हैं.

ऐतिहासिक रूप से अफ़ग़ानिस्तान पर नियंत्रण की यह होड़ दरअसल दोनों साम्राज्यों की उस रणनीति का हिस्सा थी, जिसके ज़रिए वे एक-दूसरे के विस्तार को रोकना चाहते थे. यह संघर्ष केवल युद्ध तक सीमित नहीं रहा, बल्कि इसमें कूटनीति, जासूसी और स्थानीय कबीलाई नेताओं से गठबंधन की जटिल राजनीति भी शामिल थी. अफ़ग़ानिस्तान इस अंतरराष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा का केंद्र बन गया था, जहां हर पक्ष अपने प्रभाव को मजबूत करने की जद्दोजहद में जुटा था.

ब्रिटेन और रूस के बीच यह संघर्ष केवल अफ़ग़ानिस्तान तक सीमित नहीं रहा. इसका असर मध्य और दक्षिण एशिया के बड़े हिस्सों में देखने को मिला. मध्य एशिया की धरती मानो साम्राज्यवादी शक्तियों के बीच बिछी एक शतरंज की बिसात बन गई थी, जिसके चलते कई युद्ध हुए.

अफ़ग़ानिस्तान का सामरिक महत्व इतना बड़ा था कि 19वीं सदी में ब्रिटिश और रूसी साम्राज्य इसके ऊपर प्रभाव जमाने के लिए आपस में टकरा गए. इस भूराजनीतिक प्रतिस्पर्धा को ही “The Great Game” कहा जाता है. यह शब्द प्रसिद्ध लेखक रुडयार्ड किपलिंग के उपन्यास Kim से लोकप्रिय हुआ.

सोवियत सेना को अफ़ग़ानिस्तान से बाहर निकालने के लिए कई ताक़तें एकजुट हो गईं. नतीजा यह हुआ कि एक शांतिप्रिय और ख़ूबसूरत देश हिंसा, खूनखराबे और युद्ध का मैदान बन गया. दस वर्षों तक चलने वाली इस लड़ाई के बाद, 1989 में सोवियत संघ को आखिरकार अफ़ग़ानिस्तान से पीछे हटने पर मजबूर होना पड़ा.

1979 के बाद का ग्रेट गेम

अफ़ग़ानिस्तान को लेकर शुरू हुआ “ग्रेट गेम” अस्सी के दशक के उत्तरार्द्ध में और भी तेज़ हो गया, जब 1979 में सोवियत संघ ने अफ़ग़ानिस्तान पर आक्रमण कर दिया. यह घटना अमेरिका और उसके पश्चिमी सहयोगी देशों के लिए एक बड़ा झटका थी. सोवियत प्रभाव को सीमित करने के उद्देश्य से इन देशों ने अफ़ग़ानिस्तान में हस्तक्षेप करना शुरू कर दिया.

इसके बावजूद, अफ़ग़ानिस्तान लगातार दुनिया की बड़ी ताक़तों के बीच पिसता रहा. एक समय जो देश उदार और प्रगतिशील राह पर चल रहा था, वह धीरे-धीरे कट्टरपंथी ताक़तों के शिकंजे में आ गया और आपसी कबीलाई संघर्षों में उलझ गया. इन हालातों के लिए सबसे अधिक ज़िम्मेदार उसका पड़ोसी देश पाकिस्तान रहा, जिसने वहां लगातार अस्थिरता को बढ़ावा दिया. पाकिस्तान को न तो अफ़ग़ान जनता के कल्याण से कोई सरोकार रहा, न ही उनके दीर्घकालिक हितों की चिंता.

इसके उलट, पाकिस्तान एक ओर पश्चिमी ताक़तों के पीछे खड़ा रहा, तो दूसरी ओर आतंकवादी संगठनों को पालता-पोसता रहा. अफ़ग़ानिस्तान में शांति और स्थायित्व से उसका कभी कोई वास्ता नहीं रहा. उसने कट्टरपंथी ताक़तों को हर संभव समर्थन दिया — और आज अफ़ग़ानिस्तान की स्थिति उसी का नतीजा है.इस सबके बीच, जब अमेरिकी फौजों ने अफ़ग़ानिस्तान से पूरी तरह वापसी की, तो तालिबान ने बेहद तेज़ी से ताक़त के दम पर दोबारा सत्ता पर कब्ज़ा कर लिया. इससे पहले तालिबान की सरकार 1996 से 2001 तक चली थी, जिसे अमेरिका के नेतृत्व में चलाए गए सैन्य अभियान ने गिरा दिया था. वह सरकार महज़ पांच साल ही टिक पाई थी.

अभी तक दुनिया के किसी भी देश ने अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान सरकार को आधिकारिक मान्यता नहीं दी है. इसके बावजूद, अफ़ग़ानिस्तान की जनता के हित को ध्यान में रखते हुए भारत तालिबान के साथ संवाद और संबंधों को बेहतर बनाने की हर संभव कोशिश कर रहा है.

अब यह तालिबान पर निर्भर करता है कि वह उस जनता के लिए, जिस पर वह शासन कर रहा है. अपनी कट्टर नीतियों में कितनी नरमी लाने को तैयार है. भारत का उद्देश्य स्पष्ट है: जहां भी अफ़ग़ान जनता के हित में कोई संभावना दिखाई देती है, भारत उसे हकीकत में बदलने के लिए हरसंभव प्रयास कर रहा है.

बिलकुल, ये अफ़ग़ानिस्तान की एक ऐसी तस्वीर है जो उसके इतिहास के स्वर्णिम युग की गवाही देती है. एक ऐसा दौर जिसे 1963 से 1973 के बीच का “Golden Age” कहा जाता है. यह वो समय था जब अफ़ग़ानिस्तान एक उदार और आधुनिक समाज की ओर अग्रसर था. रहने, खाने, पहनने और काम करने की आज़ादी वहां इतनी सहज थी कि कई यूरोपीय देशों की नीतियां भी उसके आगे पिछड़ी लगती थी.

बहुत से लोगों को शायद यकीन न हो, लेकिन अफ़ग़ान महिलाओं को वोट देने का अधिकार 1919 में ही मिल गया था. तुलना करें तो अमेरिका में महिलाओं को यह अधिकार 1920 में मिला और यूनाइटेड किंगडम में 1918 में — यानी अफ़ग़ान महिलाएं लोकतांत्रिक अधिकारों के मामले में दुनिया से पीछे नहीं, बल्कि आगे थीं.

1950 के दशक में अफ़ग़ानिस्तान में पर्दा प्रथा लगभग समाप्त हो चुकी थी. महिलाएं शिक्षा, नौकरी और सार्वजनिक जीवन में सक्रिय भूमिका निभा रही थीं. 1964 में देश ने एक नया संविधान अपनाया, जिसमें महिलाओं के अधिकारों पर विशेष ज़ोर दिया गया था. इस दौर में अफ़ग़ानिस्तान धीरे-धीरे आधुनिकता और प्रगतिशील सोच की ओर बढ़ रहा था.

20वीं सदी के आरंभ से लेकर सत्तर के दशक के अंत तक का यह समय अफ़ग़ानिस्तान के इतिहास में सबसे स्थिर और शांतिपूर्ण समय माना जाता है. लेकिन इसके बाद देश पर ऐसी नज़र लगी कि वह आज तक उससे उबर नहीं पाया. विदेशी हस्तक्षेप, गृहयुद्ध और कट्टरपंथी सोच ने सबसे अधिक नुकसान अफ़ग़ान महिलाओं को पहुंचाया — वे महिलाएं जो कभी समाज के हर क्षेत्र में आगे थीं, अब फिर से पर्दे के पीछे धकेल दी गई हैं.

आज की पीढ़ी जब उस दौर की तस्वीरें देखती है, तो उन्हें यकीन नहीं होता कि अफ़ग़ानिस्तान कभी इतना खुला, आधुनिक और प्रगतिशील देश भी था. यही वजह है कि इन तस्वीरों को संजोना और उनका सच जानना बेहद ज़रूरी है — ताकि हमें यह समझ आ सके कि अफ़ग़ानिस्तान की असली पहचान क्या थी, और उसे किसने, कैसे बदल दिया.
 




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